Wednesday, October 24, 2007

इंदौर बेचारा

इंदौर में 26 अक्टूबर से ग्लोबल इनवेस्टर्स समिट हो रही है। 15 दिन पहले तक जो इंदौर कराहता हुआ दिखाई दे रहा है, अब चमाचम हो चला है। सड़कें ठीक कर दी गईं, दुकानदारों ने अपनी दुकानें सजा लीं, होर्डिंग्स हट रही हैं, सफाई हो रही है। सरकारी लाव-लश्कर इंदौर में जमा है। कहीं कलेक्टर डांट िपला रहा है तो कहीं मंत्री। लेकिन बेचारा इंदौर असमंजस में है। तीनदिन की चांदनी के बाद क्या होगा। तीन दिन की चांदनी के बाद करवा चौथ है, फिर धनतेरस और फिर दीवाली। इसमें असमंजस जैसी कोई बात तो दिखती नहीं। मैने इंदौर से पूछा, भाई तुम उदास क्यों हो, मेरी तरह खुश रहो। पहले तो कुछ नहीं बोला लेकिन जब मैने अपने सवाल का जवाब पाने के लिए भांग ही बो दी, तो बोला सब ड्रामा है मेरे भाई। देखना सब जगह मुरमबाजी है। जो सड़कें मेरी छाती पर चमकती िदखाई दे रहीं हैं, 15-20 दिन बाद देखना सबकुछ साफ हो जाएगा। मैने कहा भाई तुम तो बहुत निराशावादी लगते हो, सकारात्मक सोच रखो। तो बोला, हां तुम ठीक कहते हो। अफसरों की जेब भर गई, हर साल भरती हैं लेकिन इस बार 50 करोड़ ज्यादा आए और इसमें से 5 करोड़ तो इनकी जेबों में ही गए होंगे। दीवाली का बोनस इनको िमल गया। अच्छी दीवाली मनेगी। अरे भाई, 98000 करोड़ का िनवेश आने वाला है मप्र में। इसमें से 10-20 हजार करोड़ मेरे िलए तो होना चािहए। लेकिन मेरे तो कान पक गए हैं सुनसुनकर यह सब। मैं सोचता हूं, यहां कोई क्यों पैसा लगाएगा। यहां घूंस की भी सिंगल विंडो नहीं है। दरबारी से लेकर महाराज तक सबकी अलग विंडो है। सब धीरूभाई अंबानी तो होते नहीं और न अब वह जमाना रहा कि हर मूर्ति पर चढ़ावा देने में एतराज न हो। अब तो चढ़ावा बड़ा ले लो लेकिन मूर्ति एक ही ऱखो भाई। लेकिन हमारे हुक्मरान यदि ऐसा करें तो उनको डर है कि कहीं चढ़ावा में हिस्सा न कम हो जाए। कौन समझाए शिवराज को ऐसे तमाशों से क्या हासिल होगा सिवाय बड़ी-बड़ी हेडलाइंस के। लेकिन भाई मुझे क्या पता कैलाश पर शिव को क्या-क्या चढ़ावा आने वाला है। मैं चुप हो गया इंदौर की सकारात्मक टिप्पणी सुनकर।

Friday, October 19, 2007

ग्लोबल वार्मिंग से खुलता किस्मत का ताला

ग्लोबल वार्मिंग से इधर की दुनिया परेशान है तो ग्रीनलैंड के लोग खुश हैं कि दुख भरे दिन बीते रे भैया। तापमान बढ़ा तो बर्फ पिघलने लगी। बर्फ पिघली तो जमीन निकली। जमीन में मिले हीरे। फिर पता चला कि तेल और धातुएं भी यहां के गर्भ में हैं। दुनिया के दादा वहां पहुंचा और शुरू कर दी खोज-पड़ताल। 56000 की आबादी वाले इस द्वीप का आकार यूरोप के बराबर है और डेनमार्क की कालोनी है। सत्तर-अस्सी के दशक में यहां के लोगों ने डेनमार्क से लड़कर स्वायत्त शासन लागू करवा लिया था लेकिन हर तरह की निर्भरता होने की वजह से आजादी की बात कभी नहीं की। लेकिन अब उनको लग रहा है कि बर्फ न सिर्फ द्वीप में पिघल रही है बल्कि उनकी किस्मत पर जमी बर्फ भी साफ हो रही है। समृद्धि की खदानें 56000 लोगों के लिए हर जरूरत पूरी करने वाली लग रही हैं लिहाजा वहां की सरकार ने अब डेन से आजादी की बात शुरू कर दी है। ग्लोबल वार्मिंग भले ही हमारे लिए विनाश की सूचक हो लेकिन ग्रीनलैंडर्स के लिए तो नए कल की घंटी है।

चलाइए मुगदर, आने दो अखाड़ेबाजों को

अखाड़े के उदास मुगदर में गुजरात को लेकर आस्तीन के अजगर की एक पोस्ट है और उस पर कई टिप्पणियां, उनको पढ़कर ही यह टिप्पणी मैने लिखी (रेफरेंस के लिए उसे मैं अपनी पोस्ट के नीचे कोट कर रहा हूं)-

राजनीति मोदियों से भरी हुई है। एक जगह मोदी सफल है तो दूसरी जगह मुंहभड़ा पड़ा हुआ। दुर्भाग्य है दुिनया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने कंधों पर उठाए लोगों का कि मोदियों का विकल्प हर जगह मोदी ही हैं। उत्तरप्रदेश को ही लें- एक मोदी (कल्याण) ढक्कन हुआ तो दो और सामने आ गए। जहां मोदी नहीं हैं वहां दीमो हैं जो बोलते कुछ नहीं चुपचाप जड़ खा रहे हैं और अपने कुनबे की बांबियां ऊंची किए जा रहे हैं। दरअसल, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की विडंबना यह है कि यहां हर पार्टी सब एक ही रास्ते पर चल रही है लेकिन मुरम सबने अलग-अलग रंग का डाल रखा है। ज्यादा बारिश हो जाती है तो मुरम बह जाता है और रह जाते हैं सिर्फ गड्ढे और फिर इन गड्ढों में कुछ नए ठेकेदार आते हैं और नए रंग का मुरम भरते हैं। सब जगह राजनीति के नाम पर सिर्फ यही चल रहा है। जनता को 20 साल से बताया जा रहा है समाजवाद तो आम आदमी का दुश्मन है, तभी तो दुनिया के आम आदमी ने हर जगह उसे उखाड़ फेंका। अपने देश के जो कथित समाजवादी, लोहियावादी, जेपीवादी हैं उनके खोखर में झांक कर देखिए ये विचार कहां हैं।देश का भला, आईआईटियंस या आईआईएमियंस की उस जमात से भी नहीं होने वाला जो यह सोचने लगती है कि वहीं देश की सबसे प्रितभाशाली जमात है। पिछले दिनों एक ऐसी ही जमात एक टीवी चैनल पर चमकती कि देश का भला करना है लेकिन यह जमात कहां तक पहुंची। इस जमात की दिक्कत यह है कि वे खुद को इतना प्रितभाशाली मानते हैं कि सारी प्रितभा इसमें लगाए रहते है कि लोग समझें ये लोग कितने प्रतिभाशाली हैं अरवों-करोड़ों कमा सकते हैं फिर भी वे अपने देशवासियों के हित में कमा नहीं रहे, इसलिए उनका साथ सब दें। लेकिन मैंने तो कभी देखा नहीं ऐसे लोगों की वजह से देश का कुछ भला हुआ हो। इससे नुकसान ही होता है, संघर्षशील लोगों के संघर्ष पीछे चले जाते हैं। तो भाईसाहब, देश में भांति-भांति के मोदी हैं। एक मोदी को हराकर दूसरा मोदी आता है, दूसरे को हराकर पहला या फिर तीसरा मोदी और यह सिलसिला चल रहा है। आप देखो अत्तरप्रदेश के मोदी को, जब पार्टी ने उसे निकाल दिया तो यह मोदी उसी के साथ चला गया जिसके खिलाफ शायद ही कुछ कहने को छोड़ा हो इसने और उस दूसरे मोदी ने भी इसको गोद में बैठा लिया।



अखाड़े के उदास मुगदर पर यह पोस्ट थी-
लोग कहीं के भी गुनहगार नहीं होते, गुजरात के भी नहीं
गुजरात की जनता शायद इसी लायक है कि मोदी जैसे लोग उनका नेतृत्व करें। लेकिन जनता को संवेदनशील और जागरुक बनाने के दायित्व में मीडिया और बौद्धिक समुदाय की विफलता भी इसके लिए कम उत्तरदायी नहीं है। - सृजन शिल्पी
सृजन शिल्पी की ये प्रतिक्रिया मुझे अपने पिछले पोस्ट पर मिली, जो किसी भी लोकतंत्र की वैधता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाकर उसे उनके हालात पर छोड़ देती है. गुजरात या कहीं की भी जनता जब वोट देने जाती है तो यही सोच कर जाती है कि उसका वोट उसका सबसे ज्यादा भला करेगा. क्या गुजरात की जनता सचमुच इसी के लायक है. यहां के हिंदू, मुसलमान, जैन, ईसाई, आदिवासी, हरिजन, पिछड़े कि नरेंद्र मोदी जैसे लोग उन पर राज करते रहें. अगर लोग उन्हें चुन रहे हैं, तो उस पर सवाल नहीं किये जा सकते, क्योंकि फिर तो सब कुछ संदिग्ध है. चाहे कश्मीर में जनमत संग्रह की बात हो या फिर बंगाल में कम्यूनिस्टों का लगातार जीतते रहना.
ये वाक्य इसलिए खलता है कि ये लोकतंत्र पर लानत भेजता है. और विकल्प में क्या है जिससे कुछ सकारात्मक, रचनात्मक हो सके. हालांकि सृजन शिल्पी या कोई भी व्यक्ति ऐसी बात खीझ में ही ऐसा कह सकता है. जैसे अब कोई संभावना ही न हो. पर गुजरात जैसा कि बाकी मुल्क़ है संभावनाओं से भरा हुआ है.
सृजन शिल्पी की दूसरी बात से मैं बहुत ज्यादा सहमत हूं. मोदी इसलिए कुर्सी पर नहीं हैं कि गुजरात की जनता इसी लायक है. पर ऐसा इसलिए है कि किसी ने इस बात को ठीक से उठाने, चुनौती देने और एक जंग लड़ने की तकलीफ नहीं उठाई. होना तो ये चाहिए था कि कांग्रेस को ये बीड़ा उठाकर मोदी के खिलाफ मोर्चा खोलना चाहिए था, पर वे हाथ में हाथ धरें, टांगों के बीच दुम दबाकर बैठे रहे. वे एक लीडर भी अपना मैदान में न उतार सके, जो समाज को सांप्रदायिक तौर पर बंटने से रोक पाता और जो विकास और दूसरे सामाजिक – आर्थिक मुद्दों को एजेंडे पर लेकर आता, जिससे गुजरात की अकूत दौलत लोगों की समृद्धि में बदल पाती. वे इस वक्त़ की नजाकत को पकड़ न सके और न ही उसके मुताबिक अपने प्रयासों को आकार दे सके.
उन्होंने मोदी से टकराने का काम भी पूर्व संघी नेता और बूढ़े असंतुष्ट भाजपा नेताओं के जिम्मे कर दिया है. यह सियासी आउटसोर्सिंग का काम कांग्रेस ने खुद को पता नहीं कितना होशियार समझ कर किया हो, पर इस प्रयास में उसकी अपनी कुटिलता के अलावा और कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है. और जरूरी नहीं है कि मोदी से लेकर पार्टी का भीतरी असंतोष कांग्रेस के लिए सत्ता पर बैठने का न्यौता छपवा कर ले ही आए.
कांग्रेस पिछले छह सालों में क्या कर सकती थी-
विकास को विमर्श का विषय बना सकती थी
गांधी को वापस गुजरात पंहुचाने की कोशिश कर सकती थी
लोगों के पास जाकर उनके वास्तविक मुद्दों को लेकर जुड़ना शुरू कर सकती थी
अपनी पार्टी में नया ख़ून ला सकती थी, खुद को जोड़ सकती थी
नये गठबंधन और समीकरण बनाने की कोशिश कर सकती थीपर इनमें से ज्यादातर बातों पर कांग्रेस का प्रदर्शन औसत भी नहीं है. उन्हें पता नहीं किस तांत्रिक ने बताया है कि कांग्रेस निठल्ली बैठी रहे तभी नरेंद्र मोदी की सरकार गिरेगी.
अभी रविवार दोपहर ही मैं एक प्रमुख अंग्रेजी अख़बार के युवा संपादक के साथ कैफे कॉफी डे पर बिना चीनी वाली एस्प्रैसो अमेरिकाना पी रहा था, कि उसने मुझे एक दिलचस्प बात कही. उसने कहा कि लोग ये पूछ रहे हैं कि उनका क्या भला हुआ है मोदी के राज में. लोग मतलब धोबी, पेपर बांटने वाला, कार का ड्राइवर, कामवाली.. वे लोग जो वोट डालने जाते हैं. वे लोग जो दंगाइयों से मरते हैं. वे लोग जिन्हें पुलिस मारती है. वे लोग जिनके लिए लोकतंत्र में वोट मतलब रखता है. वे लोग देखते हैं कि मोदी की सोहबत अम्बानी और रुइया और दूसरे अमीरों से ज्यादा है, गुजरात के गरीबों से कम. मोदी के कपड़े कैसे जहीन हो गये हैं, और चश्मा, दाढ़ी किस कदर डिजाइनर, वे देखते हैं. अगर विकास के मुद्दे पर मोदी चुनाव में जाते हैं, जैसे कि वे बातें कर रहे हैं , तो लोग पूछेंगे कि भई हमारा क्या विकास हुआ.
अभी वे ऐसा पूछ रहे हैं. पर कल को वोट भी इसी बात पर डालेंगे अगर. अगर उन्हें सांप्रदायिक लाइनों पर नहीं बांटा गया. सांप्रदायिक लाइनों पर बांटना तब बहुत आसान हो जाता है जब कोई गोधरा जैसा हादसा हो जाए. फिर बहुत सारे लोग अपनी प्राथमिकताओं का सरलीकरण कर लेते हैं.
अगर उन्होंने ये मन बना भी लिया है कि मोदी से उनका मन भर चुका है, वे किसे वोट दें. उस निराकार को जिसका न चेहरा है, न कोई कार्यक्रम, न आश्वासन. वे मोदी को जानते हैं और बहुत से लोग उस अनजाने को लेकर आश्वस्त नहीं दिखते जो हरदनहल्ली डोड्डेगौडा की तरह धरती पुत्र होने का स्वांग भले ही करले, पर होगा नियति की अवैध संतान ही.
ये राहुल गांधी की बपतिस्मा यहां गुजरात में क्यों नहीं हो सकता था. वे मोदी से लोहा लेते. अगर जीतते तो एक बाहुबलि की तरह दिल्ली लौटते और हारते तो भी एक ऐसे कारण के लिए जो इस देश और कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा सरदर्द साबित हो रहा है.
वे आते और आर्टीकुलेट करते. अगर मोदी यहां बने हुए हैं, तो उसकी वजह यह वॉक ओवर भी है, जो एक पनीले विपक्ष ने दिया है. गुजरात या लोगों पर लानत भेजना सबसे आसान है, पर लोकतंत्र विकल्पों का होता है. और जब विकल्प न हो, तो चुनने की आजादी भी नहीं होती. जहां वह आजादी मिली है, गुजरात की जनता ने अपने वोट को अभिव्यक्ति बहुत स्मार्ट तरीके से की है. जैसे पिछले लोकसभा चुनाव. जहां उसने ज्यादातर सीटों पर भाजपा को हरा दिया. पर इस वक़्त वे न तो सांप्रदायिक राक्षस से लड़ते दिखाई दे रहे हैं, न विकास के मोर्चे पर, न ही कोई नया वोट बैंक बना पा रहे हैं.
मोदी के अभ्युदय का श्रेय उन गांधीवादियों पर भी जाता है, जो इस पूरे दौरान चुप रहे और कुछ नहीं बोले।
उस समझदार, सयाने, विकास को एजेंडे पर रखने वाले, अ-सांप्रदायिक वोटर के लिए वह चेहरा कहांहै, जिस पर ठप्पा मारकर वह और अमन जीत जाए. अभी वह संभावना अमीबा है. अगर मोदी को हराएगी, तो वहां की जनता ही. और जो जीतेगा, वो सिकंदर नहीं होगा. वह एक नया हादसा होगा. पर ये एक दिलचस्प वक़्त है क्योंकि इतिहास में हमेशा इस तरह के दौर में नई सियासत, नये चेहरे, और नई संभावनाएं उभरती है. जिसके सूत्रधार लोग होते हैं.
Posted by आस्तीन का अजगर at 9:20 PM

8 comments:
अनुनाद सिंह said...
आपकी बात से बिलकुल सहमत नहीं हुआ जा सकता कि किसी ने मोदी को हटाने की कोशिश नहीं की। आपका ये वक्तव्य बचकाना है। सच्चाई यह है कि लोगों ने एड़ी चोटी को जोर लगा लिया पर मोदी के अंगदी पैर टस-से-मस नहीं हुए।ये कहना कि मोदी के गुजरात में बने रहने से 'बुद्धिजीवी' क्षुब्ध हैं, 'बुद्धिजीवी की नयी परिभाषा जैसा लगता है - अर्थात बुद्धिजीवी उसे कहते हैं जो मोदी का विरोध करे! यह कहना कि शायद गुजरात के लोग मोदी से शाशित होने के लायक ही हैं - ये भी अर्थहीन वाक्य है। ये वाक्य तो किसी भी प्रान्त और देश के लिये कहा जा सकता है। इसका सकारात्मक अर्थ भी हो सकता है और नकारात्मक अर्थ भी।आपके लिखने से ऐसा लगता है कि आप क्या लिख रहे हैं खुद आप को भी पता नहीं रहता।
October 16, 2007 11:24 PM
Pankaj Bengani said...
विचार प्रगट करने चाहिए. बहस होनी अच्छी बात है. परंतु भाषा का ध्यान रखना चाहिए. मुझे आपकी और विशेषकर सृजनजी की भाषा उचित नही लगी.यह कहना की गुजराती इसी लायक हैं कि मोदी शासित रहें.. यह गलत बात है. गुजराती किस लायक हैं या किस लायक नही है यह गुजरातियों को तय करने दिजीए. आप दिल्ली मे बैठकर कयास मत लगाइए
October 17, 2007 1:46 AM
Srijan Shilpi said...
किसी बड़े सांप्रदायिक दंगे के बाद जिस किसी राज्य में चुनाव हुए हैं, उनमें दंगों को रोक पाने में विफल सरकार को जनता नकारती ही रही है। लेकिन गुजरात के मामले में ऐसा नहीं हुआ और मोदी पिछले चुनाव में फिर से मुख्यमंत्री बन पाने में सफल रहे। इससे यही आशय निकलता है कि गुजरात की जनता मानव अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों की कीमत पर भौतिक आर्थिक विकास को महत्व देती है। मोदी ने गुजरात में विकास की गति को तेज किया है, इसमें दो राय नहीं और शायद इसीलिए गुजरात की समृद्धि-प्रिय जनता ने मोदी के कुकृत्यों को नजरंदाज करके उसे समर्थन दिया। लेकिन गुजरात में किसी अन्य वैकल्पिक राजनीतिक दल के मजबूत स्थिति में नहीं होने के कारण भी मोदी को लाभ मिला। गुजरात की जनता के संबंध में मेरे पिछले कथन को आप इस सामान्य कथन के परिप्रेक्ष्य में रख कर देखें तो शायद मेरा आशय स्पष्ट हो जाएगा - "जनता को वैसी ही सरकार मिलती है, जिसके वह लायक होती है"। इसको कोई अन्य निहितार्थ नहीं निकाला जाना चाहिए। गुजरात की जनता बाकी भारत की जनता से अलग नहीं है, लेकिन कुछ बात उनमें जरूर ऐसी है जिसकी वजह से गुजरात कट्टर हिन्दुत्व की सफल प्रयोगशाला के तौर पर जाना जाने लगा है। वैसे, मैं मानता हूं कि भारत में लोकतंत्र सही मायने में अभी तक स्थापित ही नहीं हो पाया है। भारत में इस जो व्यवस्था चल रही है, वह पिछले कई सदियों से चले आ रहे पुराने तंत्र का ही छद्म रूप है। संसदीय लोकतंत्र केवल उसका मुखौटा भर है। सच्चे लोकतंत्र की स्थापना हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
October 17, 2007 1:58 AM
आस्तीन का अजगर said...
मुझे आपकी प्रतिक्रियाएं पढ़कर खुशी हुई कि आप गुजरात के सवालों को इतनी ही संजीदगी से लेते हैं जितना किसी भी जिम्मेदार भारतीय नागरिक को लेनी चाहिए. नरेंद्र मोदी को हटाए जाने के प्रयास अभी तक ठीक से हुए ही नहीं क्योंकि कांग्रेस के आका भी अनुनाद सिंह की तरह ये मानते रहे कि मोदी के पांव अंगदी हैं. पर लोकसभा चुनावों में गुजरात के लोगों ने दिखा दिया कि ऐसा नहीं था. और इस बात के अभी तक अहमदाबाद में और गुजरात में ऐसे कोई लक्षण नहीं है कि लोकसभा चुनावों का दुहराव विधानसभा चुनावों में नहीं हो सकता है. गुजरात के बहुसंख्य हिंदू भी नहीं चाहते हैं कि उन पर वर्दी वाले गुंडे राज करें जिनकी पोस्टिंग नरेंद्र मोदी ने की और जिनको अदालत और चुनाव आयोग ने दागदार साबित किया है. अनुनाद का ये सवाल भी दिलचस्प है कि क्या बुद्धिजीवी सिर्फ मोदी विरोधी ही होंगे. दिया लेकर ढूंढने निकलेंगे तो नरेंद्र मोदी, पोल पॉट, हिटलर, मिलोसोविच और पिनोचे का समर्थन करने वाले बुद्धिजीवी मिल ही जाएंगे. होंगे पर मेरे पास उनकी सूची या ईमेल नहीं है. अनुनाद की भाषा काफी जजमेंटल है और इससे उनकी भाषा और तमीज की सीमा और बचपना जाहिर भी होता है. जो भी लोग लोकतंत्र में सरकार द्वारा प्रायोजित - समर्थित नरसंहारों को सही ठहराने के कुतर्क गढ़ रहे हैं, वे अनुनाद की भाषा में बुद्धिजीवी हो सकते हैं. वे लोगों को एक बार या दो बार बेवकूफ बना भी सकते हैं. वे लोगों को हमेशा के लिए बेवकूफ समझ भी सकते हैं. पर लोग ऐसे नहीं होते.संजय बेंगाणी की टिप्पणी का भी मैं आभारी हूं कि उन्होंने मेरी बात का समर्थन किया क्योंकि मेरी तरह से वे भी गुजरात को करीब से देख रहे हैं. सृजन शिल्पी का भी कि उन्होंने अपनी बात साफ की. मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि लोकतंत्र एक गतिशील प्रक्रिया है. और लोगों ने इंदिरा गांधी को नहीं छोड़ा तो नरेंद्र मोदी किस खेत की मूली है. जिस दिन लोगों के पास विकल्प होंगे, एक करिश्माई नेता होगा, उसका विजन होगा, उस दिन लोग देर नहीं लगाएंगे नमो की छुट्टी करने में. अनुनाद सिंह ये सवाल न करते तो शायद मैं ये बात इतनी स्पष्ट न कर पाता. शुक्रिया दोस्तों.